स्तनपान कराने से इनकार करने पर 'समाज आपको बुरी मां कहने लगता है'
BLK-Max Super Speciality Hospital, Delhi
सोनाली बंदोपाध्याय जब 29 बरस की उम्र में मां बनी, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा था और एक साल बाद उन्हें एक और बच्चा हुआ.
अब उनका बेटा सात बरस का है और बेटी आठ साल की है. दोनों बच्चे सेहतमंद हैं.
हालांकि, जब दोनों बच्चे पैदा हुए थे तो सोनाली ने फ़ैसला किया था कि वो उनको स्तनपान नहीं कराएंगी यानी अपना दूध नहीं पिलाएंगी.
असल में उस वक़्त सोनाली का एक दिमाग़ी बीमारी (स्कित्ज़ोफ्रेनिया) के लिए इलाज चल रहा था. वो 19 साल की उम्र से ही इसके लिए दवाएं ले रही थीं.
अपने बेटे की पैदाइश के वक़्त, उन्होंने अपने मनोचिकित्सक से बेटे को स्तनपान कराने के बारे मे सलाह मांगी. वैसे तो डॉक्टर ने सोनाली को बच्चे को अपना दूध पिलाने की इजाज़त दे दी थी. लेकिन, सोनाली ने बहुत सोच-समझकर फ़ैसला किया कि वो ऐसा नहीं करेंगी.
बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में सोनाली ने कहा, "मेरे शरीर में इतनी दवाएं जा रही थीं कि मैं इसकी अनदेखी नहीं कर सकती थी. इसीलिए मैंने बच्चों को अपना दूध नहीं पिलाने का फ़ैसला किया."
डर और असुरक्षा की भावना
शुरुआती दिनों में जब लोग उनसे ये कहते थे कि अपना दूध नहीं पिलाने से बच्चे के साथ मां के जज़्बाती रिश्ते पर असर पड़ता है, तब सोनाली डर जाती थीं. वो असुरक्षित महसूस करती थीं.
लेकिन, वो कहती हैं, "सच तो ये है कि अब वो सब बहुत पुरानी बात हो चुकी है. मुझे नहीं लगता कि ये बात सच है."
सोनाली कहती हैं, "मां हमेशा मां ही होती है, फिर चाहे कुछ भी हो."
सोनाली को पता है कि बच्चे को स्तनपान कराने के बहुत से फ़ायदे हैं. लेकिन, सोनाली का आज भी ये मानना है कि उन्होंने उस वक़्त जो फ़ैसला लिया, वो उनके बच्चों के भविष्य के लिहाज़ से सबसे अच्छा क़दम था.
आज के दौर में नई मां बनने वाली महिलाओं को अक्सर अपना दूध बच्चे को पिलाने के तजुर्बे को लेकर और अपने बच्चे की बेहतरी के बारे में तमाम सवालों का सामना करना पड़ता है.
आम तौर पर अगर मां बनी महिला का जवाब पॉज़िटिव होता है, तो उनका हौसला बढ़ाया जाता है. लेकिन, अगर किसी सवाल का जवाब वो ना में देती हैं, तो फिर पूरी बातचीत उन्हें शर्मिंदा करने पर टिक जाती है.
वैसे तो डॉक्टर सुझाव देते हैं कि स्तनपान कराना, मां और बच्चे दोनों के लिए फ़ायदेमंद होता है. डॉक्टर ये सलाह भी देते हैं कि बच्चों को जन्म के पहले छह महीनों के दौरान सिर्फ़ मां का दूध ही पिलाया जाना चाहिए.
वैसे तो, मां बनने वाली ज़्यादातर महिलाएं अपने बच्चों को अपना दूध पिला सकती हैं. लेकिन, इस मामले में कुछ विरोधाभास भी हैं.
कोई मां, बच्चे के जन्म के बाद अगर उसे अपना दूध नहीं पिला पाती, तो इसके कई कारण हो सकते हैं. ये मजबूरी भी हो सकती है. या फिर उसका अपना फ़ैसला भी हो सकता है.
लेकिन, जैसे ही कोई महिला बच्चे को स्तनपान नहीं कराने का फ़ैसला करती है, तो उसे नीचा दिखाना शुरू हो जाता है. कहा जाता है, "वो एक बुरी मां है."
कुछ महिलाएं, बच्चे की पैदाइश के तुरंत बाद उसको अपना दूध नहीं पिलाने का फ़ैसला करती हैं. वहीं, कुछ मांएं ऐसी भी होती हैं, जो कुछ समय के बाद बच्चे को स्तनपान कराना बंद कर देती हैं.
कसौली में रहने वाली उद्यमी रोली निगम को ही लीजिए. मां बनने के शुरुआती दिनों में तो रोली के लिए बच्चे को अपना दूध पिलाने का अनुभव बेहद तसल्ली भरा रहा था. पर, चार महीने बाद, जब रोली को दूध उतरना कम हो गया, तो उनके लिए बच्चे को स्तनपान कराना बड़ी चुनौती बन गया.
उन दिनों को याद करते हुए रोली बताती हैं, "मुझे बच्चे को अपना दूध पिलाने के लिए बहुत ज़ोर लगाना पड़ता था. दूध निकलता ही नहीं था और ये समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी. मेरे बच्चे का पेट ही नहीं भरता था."
'क्या मैं सामान्य मां हूं?'
यही परेशानी मिशेल मॉरिस को भी झेलनी पड़ी थी. पहले बच्चे के जन्म के बाद, वो उसको अपना दूध नहीं पिला पाती थीं. इसको लेकर मिशेल अक्सर सोच में पड़ जाती थीं.
उनके ज़हन में सवाल उठता था, "क्या मैं एक सामान्य मां हूं?"
यहां तक कि जब मिशेल को दूसरा बच्चा हुआ, तो भी ऐसा ही हुआ. जब उनसे इस बारे में पूछा गया, तो मिशेल ने कहा कि, "ऐसा क्यों हुआ, इस सवाल का एक ही जवाब है, कि कोई जवाब नहीं है."
मिशेल की गायनेकोलॉजिस्ट ने उन्हें भरोसा दिया कि इसको लेकर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. हालांकि, जब मिशेल को तीसरा बच्चा हुआ, तो उसने कुछ दिन तक उनका दूध पिया था. हालांकि, ये सिलसिला भी एक महीने से आगे नहीं बढ़ सका.
मिशेल ने ज़ोर लगाकर उसको दूध पिलाने की कोशिश की. लेकिन, इसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. आख़िर में मिशेल ने तय किया कि वो अपने बच्चे को स्तनपान कराने के लिए इतनी मशक़्क़त नहीं कर सकती हैं.
वो कहती हैं, "इसके बाद हम अपनी रोज़मर्रा की आदत के मुताबिक़ ढल गए, और ज़िंदगी उसी ढर्रे पर चलती रही. बच्चे उसी तरह सामान्य दर से बड़े होते रहे, जैसा उनको होना चाहिए था."
वहीं, रोली निगम ने स्तनपान को लेकर बहुत ज़्यादा फ़िक्र करने के बजाय अपनी सेहत और बेहतरी को तरज़ीह दी और उन्होंने बच्चे को अपना दूध पिलाना बंद कर दिया.
रोली के नज़दीकी लोगों ने उनके इस चुनाव पर सवाल उठाए. उनमें ज़्यादातर का यही कहना था कि आजकल की औरतें तो अपनी तरफ़ से कोई कोशिश ही नहीं करना चाहतीं. उनको तो बस इससे बचने का बहाना चाहिए.
रोली बताती हैं, "वो सब लोग यही साबित करने में लगे थे कि मैं बहुत बुरी मां हूं."
हालांकि, रोली का पक्का यक़ीन है कि अपने बच्चे को लेकर कोई भी फ़ैसला लेने का हक़ उसकी मां को ही है.
बदलता वक्त, बदलते हालात
डॉक्टर शची खरे बावेजा दिल्ली के बीएलके-मैक्स सुपर स्पेशियालिटी हॉस्पिटल में सीनियर कंसल्टेंट हैं.
हमने उनसे पूछा कि क्या आज के दौर में बच्चों को मां का दूध पिलाना मुश्किल होता जा रहा है, या फिर ये ख़याल सही है कि इस पीढ़ी की मांएं अपनी सुविधा के लिए स्तनपान कराने से परहेज़ करती हैं.
डॉक्टर शची का कहना है कि ये सोचना ग़लत है कि नई पीढ़ी की महिलाएं अपनी सुविधा के हिसाब से स्तनपान कराती हैं.
वो कहती हैं कि इसका संबंध रहन-सहन में बदलाव से है. जैसे कि शारीरिक गतिविधियों का कम होता और बैठकर काम करने वाली नौकरियों में इज़ाफ़ा.
डॉक्टर शची कहती हैं कि इससे महिलाओं के शरीर की बनावट और हॉरमोन के रिसाव में बदलाव आ रहे हैं.
डॉक्टर शची इस बात को इस तरह समझाती हैं, कि "हमारे शरीर और हॉरमोन में बदलाव हो रहे हैं. और, इसका नतीजा ये है कि महिलाएं जैसे पहले बच्चों को जन्म देती थीं, उसमें बदलाव हुआ है और इसी वजह से बच्चों को स्तनपान कराने पर भी असर पड़ा है."
2020 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि छह महीने से कम उम्र के केवल 64 प्रतिशत बच्चों को ही सिर्फ़ मां का दूध पिलाया जाता है.
और, जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध, दस में से केवल चार बच्चों को ही पिलाया जाता है.
डॉक्टर शची बावेजा, बच्चे की पैदाइश के एक घंटे या एक दिन बाद भी, उसको मां का दूध नहीं पिलाने की कई वजहें बताती हैं.
वो कहती हैं कई महिलाओं के लिए ऐसा कर पाना मुमकिन ही नहीं होता. ख़ास तौर से उन महिलाओं के लिए, जिनके बच्चे की डिलिवरी सिज़ेरियन ऑपरेशन से होती है या ऐसे बच्चे जिन्हें पहले ही आईसीयू में रखने की ज़रूरत होती है.
वो कहती हैं, "इसका कोई सही या ग़लत जवाब है नहीं."
नेहा सिंह यादव को ऐसी ही परेशानी झेलनी पड़ी थी, जब केवल 28 हफ़्ते में उनके जुड़वां बच्चे पैदा हुए थे. दोनों को एक महीने तक नवजात बच्चों की इंटेंसिव केयर यूनिट में रखा गया था और वो उनको अपना दूध नहीं पिला सकी थीं.
चूंकि, बाद में दोनों बच्चे अपने मुंह से निपल नहीं पकड़ पाते थे, इसलिए, नेहा को दूध उतरना लगभग बंद हो गया. और, बच्चों को स्तनपान कराना उनके लिए बेहद मुश्किल और तक़लीफ़देह हो गया था.
इस मुश्किल से छुटकारा पाने के लिए नेहा और उनके परिवार ने मां के दूध के बैंक की मदद ली. और, इसके साथ साथ वो डॉक्टर की सलाह ज़ोर लगाकर अपना दूध उतारने की कोशिश करती रहीं.
नेहा के लिए बच्चों को दूध पिलाने का समय बहुत मुश्किल भरा होता था और वो बिल्कुल सो ही नहीं पाती थीं. 24 घंटे में नेहा बमुश्किल तीन-चार घंटे सो पाती थीं, और वो आधे आधे घंटे के टुकड़ों में नींद ले पाती थीं.
इतने भयंकर तनाव की वजह से उनका दूध उतरना बहुत कम हो गया, और वो अपने दोनों बच्चों का पेट नहीं भर पाती थीं.
इसकी वजह से उन्हें बच्चों को ऊपर का दूध पिलाना पड़ा. नेहा कहती हैं , "मां बनने को समाज अक्सर रूमानियत का जामा पहना देता है. मगर, मैं भी तो एक इंसान हूं, जिसे उतनी ही तकलीफ़ महसूस होती है, जितनी किसी और को."
नेहा यादव की तरह बहुत-सी मांएं हैं, जिन पर इस सोच का असर पड़ा है कि बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाने से मां और बच्चे के बीच का जज़्बाती लगाव कमज़ोर हो जाता है.
डॉक्टर शची बावेजा ने कहा कि उनका तो लगभग हर दिन ऐसे सवालों से सामना होता है.
वो कहती हैं, "बच्चे को अपना दूध पिलाने का मां के साथ बच्चे के रिश्ते पर असर नहीं पड़ता. अगर मां और बच्चा एक साथ ख़ुश उनका बॉन्ड अच्छा है, तो फिर मां उसे अपना दूध पिलाती है या नहीं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है."
इसी सलाह पर अमल करते हुए मेहज़ ख़ान ने अपनी बेटी के साथ क़िताब पढ़ने का सिलसिला शुरू किया.
वो कहती हैं, "इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर आप बच्चे को अपना दूध पिलाती हैं, तो बच्चे से आपका रिश्ता मज़बूत होता है. लेकिन, आपको बच्चे के साथ बॉन्डिंग के दूसरे तरीक़े भी तलाशने चाहिए. इसीलिए, मैंने शुरुआत से ही बेटी के साथ क़िताब पढ़ने की आदत डाल ली."
मेहज़ ख़ान बहुत कम उम्र से ही ज़्यादा प्रोलैक्टिन रिसाव होने की दवाएं खा रही हैं. शरीर में प्रोलैक्टिन ज़्यादा होने से उन महिलाओं में भी दूध उतरने लगता है, जो गर्भवती नहीं होतीं या मां नहीं बनी होतीं.
हैरानी की बात तो ये थी कि जब मेहज़ मां बनीं, तो उनके दूध उतरना कम हो गया. अपने बच्चे की ज़रूरत भर का दूध भी उन्हें नहीं उतरता था.
मेहज़ बताती हैं, "मैं घंटों तक ज़ोर लगाती रहती थी और बमुश्किल दो-चार बूंद दूध निकलता था. मेरे पति को पता था कि मैं पूरी कोशिश कर रही थी, लेकिन मुझसे हो नहीं पा रहा था. और, इस बात को लेकर उन्होंने मेरे बारे में कोई ग़लत राय नहीं क़ायम की."
डॉक्टर शची बावेजा इस मामले में परिवार और समाज की भूमिका को बहुत अहम मानती हैं.
वो कहती हैं, "हर मां से ये उम्मीद की जाती है कि वो अपने बच्चे को स्तनपान कराएगी. इसे एक कर्तव्य के तौर पर देखा जाता है और अगर कोई ऐसा नहीं कर पाता, तो मां को ही दोषी समझ लिया जाता है."
"इससे नई-नई मां बनने वाली महिलाओं की दिमाग़ी सेहत पर बुरा असर पड़ता है. वो ख़ुद पर भरोसा गंवा बैठती हैं, क्योंकि फिर ऐसी महिलाएं ये सोचने लगती हैं कि ये तो मां की ‘सबसे क़ुदरती ज़िम्मेदारी’ है, जिसको वो नहीं निभा पा रही हैं."
डॉक्टरों का कहना है, "बच्चों के मां-बाप को स्तनपान के बारे में सीखना समझना चाहिए. आप उस वक़्त का इंतज़ार मत कीजिए, जब आपका बच्चा इस दुनिया में क़दम रखेगा. इसका फ़ायदा ये होगा कि बच्चे के जन्म के वक़्त अगर मां उसे अपना दूध नहीं पिला पाती, तो इससे किसी को कोई सदमा नहीं लगेगा."
डॉक्टर शची बावेजा कहती हैं कि बच्चे को स्तनपान की प्रक्रिया, मांग और आपूर्ति के हिसाब से तभी काम करती है, जब वो पैदाइश के पहले ही दिन से मां का दूध पीने लगता है. इससे मां को स्तनपान कराने का बेहतर तजुर्बा होता है.